Devi Temple : यहां देवताओं को सजा दी जाती है



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छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले की केशकाल घाटी में स्थित देवी भंगाराम का मंदिर (Devi Temple) एक अनोखी परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर में हर साल भादो जात्रा उत्सव के दौरान आदिवासी समुदाय अपने देवताओं का मूल्यांकन करते हैं। जो देवता अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा नहीं कर पाते या संकट से रक्षा करने में विफल रहते हैं, उन्हें सजा दी जाती है। 

यह परंपरा न केवल आदिवासी संस्कृति की अनूठी झलक पेश करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि यहां देवताओं की भूमिका को भी कसौटी पर परखा जाता है।

देवताओं की सजा : मंदिर के पीछे छोड़े जाते हैं देवता

मंदिर (Devi Temple) के पीछे एक विशेष स्थान है, जहां सजा पाए हुए देवताओं की मूर्तियां रखी जाती हैं। ये मूर्तियां विभिन्न आकृतियों और सामग्रियों से बनी होती हैं- कुछ लकड़ी की, कुछ पत्थर की और कुछ मिट्टी की। कुछ मूर्तियां बहुत सुंदर हैं, मानो उन्हें बड़े धैर्य से गढ़ा गया हो, जबकि कुछ जल्दबाजी में बनाई गई लगती हैं। लेकिन इन मूर्तियों का मंदिर के पीछे पड़ा रहना इस बात का प्रतीक है कि वे अपने भक्तों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे और अब उनकी दिव्यता कम हो गई है।

कैसे होता है देवताओं पर मुकदमा?

हर साल भादो जात्रा उत्सव के दौरान करीब 240 गांवों के आदिवासी अपने कुलदेवताओं को लेकर देवी भंगाराम (Devi Temple) के दरबार में आते हैं। इस दौरान मंदिर के पुजारी भगत या सिरहा देवी से संकेत प्राप्त करते हैं और फिर यह तय किया जाता है कि कौन-से देवता अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहे हैं। 

अगर कोई देवता अपने भक्तों के संकट दूर नहीं कर सका या प्राकृतिक आपदा से बचाने में असमर्थ रहा, तो उसे मंदिर के पीछे छोड़ दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि सजा पाने के बाद उसकी दिव्यता समाप्त हो जाती है और वह भुला दिया जाता है।

जहां काले जादू से हारने वाले देवताओं को रखा जाता है

मंदिर (Devi Temple) के पीछे एक और विशेष स्थान है, जो देवी काली के पास स्थित है। यह स्थान उन देवताओं के लिए है, जो गांव वालों को काले जादू से बचाने में विफल रहे। माना जाता है कि ये देवता अपनी शक्ति खो चुके होते हैं, इसलिए इन्हें मंदिर के अन्य देवताओं से अलग रखा जाता है।

महिलाओं की भागीदारी नहीं

इस उत्सव की सबसे रोचक बात यह है कि महिलाओं को इसमें शामिल नहीं किया जाता। आदिवासी संस्कृति में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिया जाता है, लेकिन इस परंपरा में उनकी भागीदारी नहीं होती। इस बारे में मंदिर (Devi Temple) के मुख्य पुजारी बताते हैं कि यह एक प्राचीन मान्यता है, जिसे आज भी निभाया जा रहा है।

देवता बनते भी हैं और देवत्व छोड़ते भी हैं

बस्तर के आदिवासी एक ही देवता की पूजा नहीं करते, बल्कि वे अपने नए देवता भी बना सकते हैं। भानुप्रतापपुर और केशकाल क्षेत्र में यह परंपरा देखी गई है कि जो लोग समाज की ईमानदारी से सेवा करते हैं, उन्हें देवता का दर्जा दे दिया जाता है। उदाहरण के लिए, मंदिर में डॉक्टर खान की मूर्ति भी स्थापित है। डॉक्टर खान नागपुर के थे, लेकिन उन्होंने अपने जीवनकाल में बस्तर के लोगों की सेवा की और उन्हें देवता के रूप में सम्मान मिला। उनके प्रतीक के रूप में एक छड़ी रखी गई है। यह दिखाता है कि जहां कुछ देवता अपनी दिव्यता खो देते हैं, वहीं कुछ इंसान देवत्व प्राप्त कर लेते हैं।

1700-1800 ईस्वी में बना था यह मंदिर (Devi Temple)

इस मंदिर का निर्माण 1700-1800 ईस्वी के दौरान राजा भैरमदेव के शासनकाल में हुआ था। बस्तर के आदिवासी देवताओं की पूजा करने में स्वतंत्र होते हैं। वे किसी एक विशेष देवता की पूजा नहीं करते, बल्कि समय के साथ नए देवता बनाते हैं और पुराने देवताओं को त्याग भी सकते हैं।

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