Pakistan Army : कंपनी जैसी है पाकिस्तानी सेना, इसलिए मिला मुनीर को प्रमोशन

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जनरल असीम मुनीर को फील्ड मार्शल बनाए जाने के पीछे सिर्फ सैन्य सम्मान नहीं, बल्कि पाकिस्तान की सेना (Pakistan Army) के कॉरपोरेट और राजनीतिक वर्चस्व की एक नई परत छिपी है। जानिए कैसे फौज देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति को नियंत्रित करती है।

दुनिया के ज्यादातर देशों में सेना राष्ट्र की सुरक्षा के लिए होती है, लेकिन पाकिस्तान एक अलग किस्सा है। वहां सेना (Pakistan Army) सिर्फ बॉर्डर नहीं संभालती, बल्कि सरकारें बनवाती और गिराती है, कंपनियां चलाती है, व्यापार करती है और अब एक बार फिर, अपने सर्वोच्च अधिकारी असीम मुनीर (Asim Munir) को फील्ड मार्शल बनाकर अपनी ताकत का प्रदर्शन कर चुकी है।

यह पद अब तक केवल एक व्यक्ति, जनरल अयूब खान को 1959 में मिला था। उस समय उन्होंने एक सैन्य तख्तापलट के जरिए सत्ता संभाली थी। अब, 65 साल बाद, एक और सैन्य अधिकारी को वही दर्जा मिला है, लेकिन इस बार यह फैसला नागरिक सरकार की मुहर से लिया गया है - कम से कम दिखावटी तौर पर।

लेकिन इसे केवल एक सम्मान नहीं समझिए। यह पाकिस्तानी सेना (Pakistan Army) के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को और मजबूत करने की चाल है, और शायद शहबाज शरीफ (Shehbaz Sharif) सरकार की बेबसी का इशारा भी।

भारत से हार और इनाम

पहलगाम में हुए आतंकी हमले (Pahalgam Terrorist Attack) के बाद भारत ने पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर चलाया था। पाकिस्तान ने इस टकराव को बढ़ाने की कोशिश की और बदले में उसे करारी हार मिली।

माना जा रहा है कि शहबाज शरीफ (Shehbaz Sharif) तनाव को नहीं बढ़ाना चाहते थे, लेकिन पाकिस्तानी सेना (Pakistan Army) पीछे हटने को तैयार नहीं थी। नतीजा रहा बड़ी पराजय और पाकिस्तान को भारी नुकसान झेलना पड़ा। 

इस असफलता के तुरंत बाद सेना प्रमुख को 'फील्ड मार्शल' का रुतबा देना कई सवाल खड़े करता है। क्या यह एक असफलता को ताकत की शक्ल में पेश करने की कोशिश है? या फिर एक आक्रामक नीति की घोषणा?

भारत की नजर में जनरल असीम मुनीर (Asim Munir) एक कट्टरपंथी रणनीतिकार हैं - 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' के समर्थक और भारत-विरोधी बयानबाजियों के लिए कुख्यात। उनकी पदोन्नति को पाकिस्तान की आर्मी (Pakistan Army) द्वारा भारत के खिलाफ अपनी आक्रामक नीति को और पुख्ता करने की तैयारी के तौर पर देखा जा रहा है।

सिर्फ सेना नहीं, एक कॉरपोरेट कंपनी

पाकिस्तानी सेना (Pakistan Army) की ताकत सिर्फ बंदूकों तक सीमित नहीं है। एक मशहूर कहावत है, 'बाकी देशों के पास सेना होती है, लेकिन पाकिस्तान की सेना के पास एक देश है।' इसका मतलब अब और साफ होता जा रहा है।

पाकिस्तानी सेना (Pakistan Army) एक ऐसा कॉरपोरेट दैत्य है, जिसके हाथ देश की अर्थव्यवस्था की लगभग हर नस पर हैं। सेना की व्यावसायिक गतिविधियां 100 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की बताई जाती हैं, जबकि पाकिस्तान एक-एक अरब डॉलर के लिए IMF के सामने हाथ फैला रहा है।

पाकिस्तानी सेना के कारोबार का अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है। सोचा भी नहीं जा सकता कि किस-किस देश में काम फैला हुआ है। एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि पाकिस्तानी सेना वैध धंधों के अलावा आतंकवाद और ड्रग्स तस्करी जैसी करतूतों में भी शामिल है। 

अगर उसके कारोबार में चीन-पाकिस्तान इकनॉमी कॉरिडोर (CPEC) का जिक्र न हो तो बात अधूरी रह जाएगी। इस प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी पाकिस्तानी सेना (Pakistan Army) ने अपने अफसरों को सौंप रखी है। यह भी कहा जाता है कि सीपीईसी में चल रहे सभी प्रोजेक्ट में सेना की हिस्सेदारी है। ज्यादातर कर्मचारी सेना के रिटायर अफसर या सैनिक हैं। वैसे भी पाकिस्तान के कई संस्थानों पर पूर्व सैन्य ऑफिसर काबिज हैं। 

इन सारी बातों का मतलब यही है कि पाकिस्तान की सेना (Pakistan Army) एक व्यापारी है। तेल, स्कूल से लेकर बैंक और सीमेंट से लेकर भवन निर्माण तक का काम सेना देखती रही है। 

अपने कारोबार को संचालित करने के लिए उसने कई संस्थाएं बनाई हैं। इसमें सबसे अहम है फौजी फाउंडेशन। इसका मुख्यालय रावलपिंडी में है। यह फाउंडेशन चीनी मिल, अनाज, प्राकृतिक गैस, प्लास्टिक, उर्वरक, सीमेंट, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में है। इसमें पाकिस्तानी सेना के छह से सात हजार सैन्य कर्मचारी काम करते हैं। फाउंडेशन का टर्नओवर 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक का बताया जाता है। 

वहां एक आर्मी वेलफेयर ट्रस्ट भी है। यह ट्रस्ट कृषि फार्म, फिश फार्म, राइस और शुगर मिल, सीमेंट फैक्ट्री, फार्मास्युटिकल, शूज, वूल, होजरी, ट्रैवल एजेंसी, एविएशन, कमर्शल कॉम्प्लेक्स, बैंकिंग, इंश्योरेंस और सिक्योरिटी के कारोबार को संचालित करता है। इसी तरह विमानन क्षेत्र में पकड़ बनाए रखने के लिए शाहीन फाउंडेशन और अस्करी एविएशन हैं। 

बहरिया फाउंडेशन के जरिए पाकिस्तानी सेना समुद्री कारोबार में दखल रखती है। वहीं एक रक्षा आवास प्राधिकरण भी है। यह अथॉरिटी कराची, लाहौर, रावलपिंडी-इस्लामाबाद, मुल्तान, गुजरांवाला, बहावलपुर, पेशावर और क्वेटा के प्रमुख शहरों में आवास बनाती है। 

पाकिस्तान में कोई भी नई कंपनी सेना की मंजूरी बिना शुरू नहीं हो सकती। हर कंपनी में सेना की हिस्सेदारी जरूर होती है। कह सकते हैं सेना का कट होता है। 

पाकिस्तान की सेना देश की सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखना चाहती है। अर्थव्यवस्था में मजबूत पकड़ का अर्थ जनता में पकड़ बनाना है। 

पाकिस्तान बनने के साथ ही वहां की सेना (Pakistan Army) को अहसास हो गया था कि अगर देश पर कब्जा बनाए रखना है तो आर्थिक रूप से मजबूत बनना होगा। उसने वही किया। पाकिस्तानी सेना कभी अपनी सरकार पर निर्भर नहीं रही, बल्कि सरकार निर्भर है सेना पर।

इतना बताना काफी है कि बंटवारे के बाद से वहां करीब 30 साल सेना की हुकूमत रह चुकी है। बचे वर्षों में भी सेना का सरकार पर पूरा नियंत्रण रहा। वर्तमान सरकार के ही बारे में कहा जाता है कि इमरान खान (Imran Khan) को रास्ते से हटाकर शहबाज शरीफ को सत्ता तक पहुंचाने में सेना का हाथ है। 

पाकिस्तानी सेना के संगठनों और संस्थाओं का वार्षिक ऑडिट नहीं होता। इन्हें जांच से छूट मिली हुई है। लिहाजा सेना के अलावा और कोई नहीं जान सकता है कि इन व्यवसायिक संस्थाओं में क्या हो रहा है। 

हालांकि इतने बड़े कारोबार के बाद भी पाकिस्तानी सेना जनता को महंगाई, बेरोजगारी और भुखमरी से राहत नहीं दे सकी है। पाकिस्तान की एक तिहाई से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।

जनरल असीम मुनीर की पदोन्नति को कुछ लोग सेना के 'सम्मान' के तौर पर देख सकते हैं, लेकिन यह उस 'संवैधानिक लोकतंत्र' पर भारी पड़ता है जिसकी बुनियाद कमजोर होती जा रही है।

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