Indira Gandhi : जब हार के बाद भी जनता पार्टी को डराती रहीं इंदिरा

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आपातकाल (Emergency) के बाद सत्ता से बाहर हुईं इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को लेकर नई सरकार में तख्तापलट का डर था। वहीं, इंदिरा को संजय गांधी (Sanjay Gandhi) के जेल जाने की आशंका सताने लगी थी। जानिए कैसे गहराते गए संदेह और क्या हुआ सेना को लेकर फैली अफवाहों में?

आपातकाल (Emergency) के बाद, 1977 की सर्द सुबह जब इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को चुनाव हारने की खबर मिली, तो दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में सिर्फ एक सत्ता का पतन नहीं हुआ था, बल्कि पूरे सिस्टम में डर और अविश्वास की नई फसल भी उग आई थी। सत्ता से बेदखल हुईं इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) अब खुद को कमजोर नहीं, बल्कि असुरक्षित मानने लगी थीं। उन्हें डर था कि नई सरकार उनके बेटे संजय गांधी (Sanjay Gandhi) को जेल भेज सकती है।

पर दिलचस्प ये था कि जितना डर इंदिरा (Indira Gandhi) को सत्ता से बाहर होकर लग रहा था, उतनी ही बेचैनी नई सरकार में भी थी। मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी को लगने लगा था कि इंदिरा गांधी अब भी सत्ता वापसी की साजिशें रच रही हैं, और सत्ता के गलियारे में उनके कुछ वफादार तख्तापलट की जमीन तैयार कर रहे हैं।

इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की हार के कुछ ही घंटे बाद एक गुप्त सूचना आई कि उनके आधिकारिक आवास, 1 सफदरजंग रोड से दस्तावेजों से भरे दो बक्से छतरपुर फार्महाउस भेजे गए हैं। बताया गया कि ये बक्से जमीन में दफन किए जा रहे हैं। जांच के लिए तत्काल एक टीम रवाना की गई। फार्महाउस पर मेटल डिटेक्टर लेकर पहुंचने की योजना थी, ताकि बक्से का सुराग लगे, लेकिन उपकरण समय पर नहीं पहुंचा।

जब तक दोबारा जांच की गई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वहां काम करने वाले माली ने बताया कि जो बक्से गाड़े गए थे, उन्हें किसी ने निकाल लिया। क्या छिपाया जा रहा था, इसका जवाब किसी के पास नहीं था, लेकिन सरकार सतर्क हो चुकी थी।

राष्ट्रपति भवन में रुका आदेश, कैबिनेट में घबराहट

कुछ ही हफ्ते बीते थे कि नई सरकार ने नौ राज्यों की कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त करने का प्रस्ताव राष्ट्रपति भवन भेजा। यह सोचा गया कि इंदिरा (Indira Gandhi) की पराजय के साथ राज्यों में बैठी कांग्रेस की सत्ता भी जनमत खो चुकी है। दरअसल, Emergency लगाने के बाद इंदिरा ने भी यही किया था।

लेकिन, कार्यवाहक राष्ट्रपति बीडी जत्ती ने दो बार इस प्रस्ताव को रोक दिया। अचानक कैबिनेट के सामने यह सवाल खड़ा हो गया कि क्या राष्ट्रपति संवैधानिक आदेश मानने से इनकार कर सकते हैं? और अगर इनकार कर दिया, तो क्या सेना के सर्वोच्च कमांडर के तौर पर वे सैन्य हस्तक्षेप की ओर बढ़ सकते हैं?

दरअसल, यह डर कोई कोरी कल्पना नहीं था। चुनाव से पहले ही चर्चा थी कि अगर इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) हारती हैं और उनके आवास की ओर कोई प्रदर्शन होता है, तो उनकी सुरक्षा के लिए सेना को तैनात किया जा सकता है। हालांकि इंदिरा ने खुद इस सुझाव को खारिज कर दिया था।

लेकिन, नई सरकार के भीतर यह आशंका गहराने लगी थी कि कहीं इंदिरा के कुछ समर्थक कोई बड़ा कदम न उठा लें।

कैबिनेट की एक अहम बैठक में जब ये आशंकाएं सामने आईं, तो तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम ने भरोसा दिलाया कि भारतीय सेना लोकतंत्र के साथ है। उन्होंने बताया कि जब आपातकाल लागू किया गया था, तब भी सेना ने राजनीतिक दखल से साफ इनकार कर दिया था। मगर यह बयान भी डर को पूरी तरह मिटा नहीं पाया।

रात होते-होते कुछ मंत्रियों को गुप्त एजेंसियों से अलर्ट मिला कि 'कुछ बड़ा होने वाला है'। एक मंत्री को कांग्रेस नेताओं की संदिग्ध गतिविधियों की रिपोर्ट मिली, दूसरे को फोन पर चेतावनी दी गई कि सतर्क रहें। जॉर्ज फर्नांडिस (George Fernandes) को भी इस आशंका की सूचना दी गई। उन्होंने तुरंत अपने राजनीतिक सचिव को लुटियंस दिल्ली की निगरानी में भेजा, लेकिन कोई असामान्य हलचल नहीं मिली।

राष्ट्रपति पर दबाव और सड़कों पर प्रदर्शन

स्थिति को बिगड़ने से पहले काबू में लाने के लिए एक और कदम उठाया गया। जॉर्ज फर्नांडिस अगले दिन सैकड़ों समाजवादियों के साथ सड़कों पर उतरे और राष्ट्रपति भवन की ओर मार्च करते हुए कार्यवाहक राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग करने लगे।

इस बीच सरकार ने कानूनी दलीलों से राष्ट्रपति को यह बताया कि संविधान का 42वां संशोधन उन्हें कैबिनेट की सलाह मानने को बाध्य करता है। राष्ट्रपति को आखिरकार झुकना पड़ा और नौ राज्यों की कांग्रेस सरकारें बर्खास्त कर दी गईं।

बर्खास्ती के बाद हुए चुनावों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, उड़ीसा और हिमाचल प्रदेश में जनता पार्टी को सत्ता मिली। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने कब्जा जमाया और पंजाब में अकाली दल की जीत हुई।

इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) और कांग्रेस के लिए यह एक और करारी हार थी। 

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