Independence Day : पिस्तौल काम आई न जिन्ना का लालच, ऐसे एक बना भारत
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आजादी (Independence Day) मिलने वाली थी, लेकिन देश भीतर से बंटा हुआ था। अगर भीतर एकजुटता न आती तो लंबे संघर्ष के बाद मिलने वाली स्वतंत्रता का मतलब नहीं रहता। किस तरह एक हुआ भारत, uplive24.com पर Independence Day Special Story :
Independence Day : 1947 की तपती गर्मियों में, जब भारत आजादी (Independence Day) की दहलीज पर खड़ा था, दिल्ली के वायसराय हाउस में एक युवा राजा बेचैनी से कुर्सी पर पहलू बदल रहा था। यह थे जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह - महज 23 साल के, लेकिन आज के दिन उनके सामने ऐसा फैसला था, जो इतिहास की दिशा तय कर सकता था। उनका माथा क्रोध से तप रहा था। उनके पूर्वजों ने जिस राज्य पर गर्व से शासन किया था, वह अब उनके हाथ से फिसल रहा था।
अचानक, उन्होंने पिस्तौल निकाली और उसे वी.पी. मेनन की ओर तान दिया। कमरे में सन्नाटा छा गया। पर मेनन का चेहरा शांत रहा। ठंडे स्वर में उन्होंने बस इतना कहा कि इससे विलय रुकने वाला नहीं। और जैसे किसी जादू से, हनवंत सिंह का हाथ नीचे हो गया। कुछ क्षण बाद, जोधपुर भारत का हिस्सा बन चुका था।
भारत की आजादी महज अंग्रेजों के जाने की कहानी नहीं थी, बल्कि 562 रियासतों को एक झंडे तले लाने की चुनौती भी थी। ब्रिटेन को जब महसूस हुआ कि अब वह इस विशाल देश को नियंत्रित नहीं रख सकता, तो लॉर्ड माउंटबेटन (Lord Mountbatten) को वायसराय बनाकर दिल्ली भेजा गया, इस मिशन के साथ कि वह सत्ता भारतीयों को सौंपकर लौटें। तारीख तय हुई 15 अगस्त 1947 (Independence Day)।
समय कम था, काम पहाड़ जैसा। सीधे ब्रिटिश शासन वाले इलाकों से इतर, देश में सैकड़ों रियासतें थीं। इनके अपने-अपने राजा, अपनी सेनाएं, अपने कानून, और कई तो खुद को छोटे देशों के बराबर मानते थे। इन रजवाड़ों को भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ आने के लिए राजी करना आसान नहीं था।
यह जिम्मेदारी सरदार वल्लभभाई पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) और उनके सक्षम सचिव वी.पी. मेनन को सौंपी गई। पटेल ने महीनों तक राजाओं और दीवानों से मुलाकात की। बीकानेर ने सबसे पहले भारत में शामिल होने का रास्ता चुना, जिसके बाद कई और रियासतें मान गईं।
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लेकिन कुछ राज्यों ने कड़ा विरोध किया - जैसे जोधपुर, जूनागढ़, हैदराबाद, भोपाल और त्रावणकोर। जोधपुर के राजा तो पाकिस्तान (Pakistan) से हाथ मिलाने के कगार पर थे। मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें बंदरगाह, हथियार और अनाज के आयात की पूरी छूट देने का वादा किया था। यहां तक कि एक खाली कागज भेजकर लिखा -अपनी शर्तें लिख दीजिए।
लेकिन पटेल की चतुर कूटनीति और हनवंत के नजदीकी सलाहकारों की चेतावनी ने उनका मन बदल दिया। उन्हें समझाया गया कि पाकिस्तान में शामिल होने पर उनके हिंदू-बहुल राज्य में विद्रोह और दंगे हो सकते हैं। अंततः, माउंटबेटन की मौजूदगी में हनवंत सिंह ने भारत में विलय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए।
त्रावणकोर की जिद
इसी तरह त्रावणकोर ने कहा था कि वह एक स्वतंत्र देश बनेगा। यहां के दीवान सर सीपीआर अय्यर ने दिल्ली से लेकर लंदन तक अपनी कोशिशें जारी रखीं। कहते हैं कि ब्रिटेन के कई राजनेता उनके पक्ष में थे। कारण था त्रावणकोर में पाया जाने वाला महत्वपूर्ण खनिज मोनाजाइट। त्रावणकोर ने इसकी सप्लाई को लेकर ब्रिटेन से पहले ही एक समझौता कर लिया था।
समझाने के प्रयास बेकार जा रहे थे, तभी 1947 की 25 जुलाई को अचानक एक घटना घटी। एक अनजान शख़्स ने अय्यर पर चाकू से हमला कर दिया। उनके घावों का असर यह रहा कि त्रावणकोर के राजा ने तुरंत ही भारत में शामिल होने पर हामी भर दी। भोपाल रियासत के लिए भारत को दो साल इंतजार करना पड़ा। वहीं, हैदराबाद और जूनागढ़ को ताकत दिखानी पड़ी।
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मेनन का दिमाग, पटेल की हिम्मत
आजादी (Independence Day) के पहले सबसे मुश्किल कामों में यही था कि रियासतों को कैसे मनाया जाए। इसमें मेनन की भूमिका इन सभी घटनाओं में केंद्रीय थी। वह राजाओं की सनक, उनकी अजीबो-गरीब मांगें और उनके शाही अहम को संभालने में माहिर थे। पिस्तौल की नोक पर भी उनकी नसें नहीं हिलतीं। उन्होंने प्रीवि पर्स का प्रस्ताव रखा। इसके तहत रियासतों को हर साल एक तय राशि देने का वादा किया गया। इससे राजाओं को लगा कि उनका सम्मान बरकरार रहेगा, जबकि भारत सरकार को इन रियासतों से दस गुना अधिक राजस्व मिलने वाला था।
लॉर्ड माउंटबेटन का भी योगदान रहा। वह पहले विभाजन रोकना चाहते थे, लेकिन असफल रहने पर इस बात के लिए जुट गए कि भारत और पाकिस्तान के अलावा कोई तीसरा विकल्प न बचे। 25 जुलाई 1947 को चैंबर ऑफ प्रिंसेज में उन्होंने साफ कह दिया कि स्वतंत्र रियासतों को ब्रिटेन मान्यता नहीं देगा। उनका संदेश कई राजाओं को कड़वा लगा, लेकिन माउंटबेटन ने अपने व्यक्तिगत प्रभाव और कूटनीतिक चालों से भारत के पक्ष में माहौल बनाया।
आजादी (Independence Day) के बाद भारत ने जो आकार लिया, उसमें सरदार पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) की भूमिका सबसे अहम रही। उनकी हिम्मत न रही होती, तो शायद कुछ मामलों में जिन्ना की चाल कामयाब हो जाती। उनके लौह पुरुष अवतार ने भारत को एक रखा।
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