Bamakhepa : बामाखेपा, जिनके आंसू पोछने खुद आती थीं मां तारा

क्या आपने किसी ऐसे भक्त के बारे में सुना है, जिसे मां तारा खुद भोजन कराती हों और अपने बच्चे की तरह मानती हों? ऐसे ही थे बामाखेपा, जिन्होंने लोगों ने शुरू में पागल माना और फिर उनके आगे नतमस्तक हो गए। uplive24.com पर पढ़िए यह अद्भुत कहानी।

भारत की धरती ने कई ऐसे संत और साधक दिए हैं, जिनकी कहानियां अलौकिकता से भरी हुई हैं। पश्चिम बंगाल का तारापीठ (Tarapith) भी ऐसा ही एक स्थान है, जहां जन्मे थे एक अद्भुत महामानव बामाखेपा (Bamakhepa)। गांव वाले उन्हें पागल बाबा कहते थे, लेकिन वास्तव में वे मां तारा (Goddess Tara) के प्रिय पुत्र और अद्वितीय साधक थे।

बामाखेपा (Bamakhepa) का असली नाम वामाचरण था। पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव अटला (Atla village) में 1837 ईस्वी में उनका जन्म हुआ। उनके पिता एक धार्मिक ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म के कुछ ही समय बाद उनका देहांत हो गया। मां राजकुमारी गरीबी में बच्चों का पालन-पोषण करने में असमर्थ रहीं, तो दोनों भाई-बहनों को मामा के पास तारापीठ के नजदीकी गांव भेज दिया गया। 

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जैसा अनाथ बच्चों के साथ होता है, वहां भी उनका स्वागत कांटों भरा था। भेदभाव और उपेक्षा ने उनके दिल को छलनी कर दिया। धीरे-धीरे बामाखेपा की रुचि साधुओं की संगति की ओर मुड़ गई। गांव के श्मशान में आने वाले बाबाओं के साथ रहते हुए, उनके मन में देवी तारा के प्रति भक्ति का बीज अंकुरित होने लगा। अब वे मां तारा को 'बड़ी मां' कहते और अपनी जन्म मां को 'छोटी मां'। 

कभी जलती चिता के पास बैठ जाते, तो कभी हवा से बातें करने लगते। इन अजीब हरकतों से उनका नाम वामा खेपा (Vama Khepa) पड़ गया – जहां 'वामा' वामाचार तंत्र का प्रतीक था, और 'खेपा' का मतलब पागल! गांव वाले उन्हें आधा पागल समझते, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके बीच एक महामानव विराजमान है। यह बामाखेपा (Bamakhepa) की दर्दभरी लेकिन आध्यात्मिक शुरुआत थी, जो तारापीठ को अमर बनाने वाली थी। 

युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते बामाखेपा (Bamakhepa) श्मशान के आदि हो चुके थे। भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार की रात्रि – यह भगवती तारा की सिद्धि का सबसे पवित्र मुहूर्त था। श्मशान में जलती चिता के बगल में बैठे बामाखेपा को अचानक नीले आकाश से ज्योति फूटती दिखाई पड़ी! चारों ओर प्रकाश फैल गया, और उसी प्रकाश में प्रकट हुईं मां तारा – कमर में बाघछाल, एक हाथ में कैंची, दूसरे में खोपड़ी, तीसरे में नीला कमल, चौथे में खड्ग धारण किए। महावर लगे पैरों में पायल, खुले केश, नील वर्णी रूप, मंद मुस्कान के साथ परम ब्रह्मांड की स्वामिनी!

बामाखेपा (Bamakhepa) इस भव्य दर्शन से आनंदित हो उठे। मां ने उनका सिर सहलाया, और वह समाधि में लीन हो गए - तीन दिन-तीन रात तक श्मशान में ही! होश आने पर 'मां-मां' चिल्लाते दौड़ने लगे। गांव वालों को लगा, बामा अब पूरा पागल हो गया! यह स्थिति महीनों रही, लेकिन यही वह पल था जब तारापीठ बामाखेपा की कथा ने उड़ान भरी। तंत्र साधना के दीक्षा गुरु कैलाशपति से मिलकर उन्होंने कुंडलिनी जागरण का रहस्य जाना।

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रानी का सपना और बामाखेपा (Bamakhepa) की अजीब पूजा

कुछ दिनों बाद वहां की रानी के सपने में मां तारा (Maa Tara) प्रकट हुईं और आदेश दिया - श्मशान के पास मंदिर बनवाओ और बामा को पुजारी बनाओ! अगले ही दिन मंदिर निर्माण शुरू हो गया, और जल्द ही तारपीठ मंदिर (Tarapith Mandir) तैयार! बामाखेपा खुश हो उठे, क्योंकि अब उनकी 'बड़ी मां' उनके साथ थी। लेकिन मोटे चढ़ावे की संभावना वाले इस मंदिर में आधे-पागल बामा को पुजारी बनाना पंडितों को खल गया। 

बामाखेपा (Bamakhepa) की पूजा अजीब थी – कभी दिन भर पूजा, कभी दिनों तक विराम; कभी माला मां को पहनाते, कभी खुद! एक दिन मन में आया कि प्रसाद पहले चख लूं, अगर स्वादिष्ट हुआ तो ही मां को चढ़ाऊंगा। 

पंडितों ने यह देखा तो बवाल मचा दिया। शोर मच गया कि जूठा प्रसाद चढ़ा दिया है, देवी रुष्ट होंगी। भीड़ ने बामा की पिटाई की और श्मशान में फेंक दिया। पंडितों ने मंदिर पर कब्जा जमा लिया। होश आने पर अपनी बड़ी मां से बामा रूठ गए - मैं तो तेरा भोग स्वादिष्ट बनाने को चख रहा था, तूने पिटवा दिया!

वह गुस्से में जंगल की गुफा में छुप गए, जैसे बच्चा मां से नाराज होकर कोने में बैठ जाता है। मां-बेटे का यह रिश्ता अबोध शिशु जैसा था। उसी रात रानी के स्वप्न में क्रोधित मां प्रकट हुईं - मेरे पुत्र को मारा, मंदिर छोड़ रही हूं। कल तक बामा को वापस ला, वरना प्रकोप झेलो!

क्रोधित माई का स्वरूप व्याख्या से परे था। रानी ने अगले दिन अपने सेवकों को दौड़ाया और मामले का पता लगाने के लिए कहा। जैसे ही पूरी जानकारी प्राप्त हुई रानी अपने लाव लश्कर के साथ मंदिर पहुंच गई। सारे पण्डों को कसकर फटकार लगाई और मंदिर में प्रवेश से प्रतिबंधित कर दिया। अपने सेवकों को आदेश दिया कि जैसे भी हो बामाखेपा को ढूंढ कर लाओ।

अब सारे सेवक चारों तरफ बामाखेपा की खोज में लग गए। एक सेवक को गुफा में बैठा हुआ बामाखेपा मिल गया। बड़ी मनोव्वल के बाद भी वह नहीं माना तो सेवक ने जाकर रानी को बात बताई। रानी खुद गुफा तक पहुंची। बामा ने उनपर भी अपना गुस्सा उतारा। उनकी बाल सुलभ सहजता को देखकर रानी का नारी हृदय भी ममत्व से भर गया। उनकी समझ में आ गया कि तारा माई का मातृत्व इस बामाखेपा के प्रति क्यों है।

उन्होंने फरमान जारी कर दिया, इस मंदिर का पुजारी बामाखेपा (Bamakhepa) है। उसकी जैसी मर्जी हो जैसी विधि वह करना चाहे उस प्रकार से पूजा करने के लिए वह स्वतंत्र है। कोई भी उसके मार्ग में आएगा तो दंड का भागी होगा। मंदिर व्यवस्था फिर से बामाखेपा के हिसाब से चलने लगी।

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नदी पार की, बारिश रोक दी

बामाखेपा का जीवन अद्भुत घटनाओं से भरा रहा। जब उनकी मां का निधन हुआ तो नदी में बाढ़ आई थी और उनका गांव उस पार था। बामा जिद पर अड़ गए छोटी मां का दाह संस्कार बड़ी मां के पास वाले श्मशान में किया जाएगा। लेकिन, लाश लेकर बढ़ी नदी कौन पार करे? आखिर में बामाखेपा ने माता के शव को उठाया और खुद नदी पर चलते हुए पार कर गए। 

फिर बात आई मृत्युभोज की। बामाखेपा (Bamakhepa) ने कहा कि आसपास के गांवों के सभी लोगों को बुलाना है। लोग फिर हैरान हुए कि इसके पास हजारों लोगों को खिलाने के लिए धन कहां है। लेकिन, बामा अड़े रहे। जब कोई तैयार नहीं हुआ तो खुद ही सभी को निमंत्रित करने चल दिए।

सभी देखना चाहते थे कि इस बार बामाखेपा क्या करते हैं? कहते हैं कि फिर चमत्कार हुआ। मृत्युभोज वाले दिन बैलगाड़ियों में भरकर खाने का सामान पहुंचने लगा, खाना पकाने वाले भी आ गए। वैसा भोज किसी ने न कभी खाया था और फिर न कभी खाया।

उसी दौरान प्रकृति का भी मन हुआ बामा से ठिठोली करने को। बादल घुमड़ आए, भारी बारिश के आसार बन गए। बामाखेपा ने एक लकड़ी उठाई और उससे आयोजन स्थल के पास एक घेरा बना दिया। घनघोर बारिश हुई, पर एक बूंद उस घेरे के अंदर नहीं गिरी। लोगों ने छक कर खाया और जब उनके जाने का समय आया, तो आसमान खुल गया। 

बामाखेपा के इन चमत्कारों को देखकर उनके भक्त बढ़ने लगे। तारापीठ की महिमा फैलने लगी। दुखियारों के दुख तारापीठ आकर दूर हो जाते। 

बामाखेपा और मां तारा (Bamakhepa and Maa Tara) का रिश्ता साधारण भक्त-देवी का नहीं था, बल्कि मां-बेटे का था। माना जाता है कि मां तारा स्वयं उनके हाथों से प्रसाद ग्रहण करती थीं और उन्हें खिलाती थीं।

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