Vande Mataram : वंदे मातरम् पर विरोध! कहीं हम जिन्ना की चाल में तो नहीं फंस गए

 

वंदे मातरम् की सिर्फ पहली दो पंक्तियां ही क्यों गाई जाती हैं? 1937 के विवाद, गांधी-नेहरू-टैगोर की भूमिका, मुस्लिम लीग का रुख और संविधान सभा के फैसले को आसान भाषा में uplive24.com पर समझिए।

भारत ने 7 नवंबर 2025 को वंदे मातरम् (Vande Mataram) के 150 साल पूरे होने का जश्न मनाया। लेकिन इसी मौके पर यह पुरानी बहस एक बार फिर सामने आ गई कि हम पूरा गीत क्यों नहीं गाते? सिर्फ पहले दो स्तोत्र ही क्यों?

पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा कि गाने के अहम हिस्सों को कांग्रेस ने अलग कर दिया, जिससे इसकी आत्मा टूट गई। इसके बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा कि वंदे मातरम् (Vande Mataram) को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन' के बराबर सम्मान मिलना चाहिए था, लेकिन धीरे-धीरे वह पीछे चला गया।

अब सवाल यह है आखिर भारत पूरा गीत क्यों नहीं गाता, सिर्फ दो ही पंक्तियां क्यों? इसका जवाब राजनीति, इतिहास और उस समय की संवेदनशीलताओं में छिपा है।

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने यह गीत 1875 के आसपास लिखा था। बाद में 1881 में इसे अपनी किताब 'आनंदमठ' में डाला। किताब की पृष्ठभूमि 18वीं सदी का संन्यासी विद्रोह है और उसमें मां दुर्गा की पूजा का जोरदार चित्रण है। बाद के अंतरे में साफ-साफ देवी-देवताओं के नाम और हथियारों का जिक्र है। इसी वजह से कई मुस्लिम नेताओं और आम लोगों को लगता है कि देश-मां को देवी के रूप में पूजना इस्लाम की तौहीद (एकेश्वरवाद) के खिलाफ है। यानी यह शिर्क (बहुदेववाद) को बढ़ावा देगा।

Vande Mataram : एक गीत से इतना डरते क्यों थे अंग्रेज, जानिए वंदे मातरम् का 150 बरसों का सफर

पहली सार्वजनिक प्रस्तुति और देश की धड़कन

वंदे मातरम् (Vande Mataram) की पहली सार्वजनिक प्रस्तुति रवीन्द्रनाथ टैगोर ने की थी। यह प्रस्तुति 1896 में कलकत्ता (अब कोलकाता) में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में हुई थी। टैगोर ने उस समय इस गीत को स्वयं सुर लगाकर गाया था, और यहीं से वंदे मातरम् राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे लोकप्रिय गीतों में शामिल हो गया।

देखते ही देखते इसकी पहली दो पंक्तियां आम लोगों के उत्साह, साहस और एकजुटता का प्रतीक बन गईं। 1905 के बंग-भंग आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के कई मोर्चों तक, यह गीत (Vande Mataram) आजादी की लड़ाई का अपना अलग नारा था।

1920 के आसपास तक इस गीत से किसी को एतराज नहीं था। हालांकि कुछ मुसलमान इसे मूर्ति-पूजा से जुड़ी छवि के रूप में पढ़ते थे। उनके लिए 'त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी…' जैसी पंक्तियां धार्मिक मतभेद पैदा करती थीं। यहीं से सवाल शुरू हुआ कि क्या राष्ट्रीय गीत ऐसा हो सकता है जिसे हर भारतीय सहजता से न अपना सके?

नेहरू, टैगोर और कांग्रेस की लंबी बहस

1930 के दशक में यह विवाद इतना गंभीर हुआ कि जवाहरलाल नेहरू को खुद दखल देना पड़ा। वह मानते थे कि विरोध का बड़ा हिस्सा राजनीतिक है, लेकिन उन्होंने यह भी माना कि यदि किसी समुदाय की भावना सच में आहत होती है, तो कांग्रेस को उसका सम्मान करना चाहिए।

नेहरू ने रवीन्द्रनाथ टैगोर से राय मांगी। टैगोर ने बेहद साफ शब्दों में लिखा कि पूरी कविता (Vande Mataram) का पाठ उसके संदर्भ के साथ मुस्लिम समुदाय को चोट पहुंचा सकता है। लेकिन पहले दो अंतरे अपनी जगह सर्वस्वीकृत हैं और इन्हें अलग रूप में गाया जा सकता है।

इन शब्दों ने मानो पूरी बहस को दिशा दे दी। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी माना कि देशभर में केवल दो ही अंतरे लोकप्रिय हैं, बाकी हिस्से शायद ही कहीं गाए जाते हों। इसलिए एक समझौता हुआ कि वंदे मातरम् (Vande Mataram) रहेगा, लेकिन केवल पहले दो अंतरों तक।

यह समझौता सभी को खुश नहीं कर पाया, लेकिन इससे विवाद कम हो गया और राष्ट्र को एक साझा रास्ता मिला।

Vellore Revolt : बस 5 मिनट से बच गए थे अंग्रेज वरना वेल्लोर विद्रोह से मिल जाती आजादी!

वंदे मातरम् (Vande Mataram) पर गांधी का रुख

इस मामले में महात्मा गांधी का रुख कहीं अधिक सतर्क था। वह मानते थे कि वंदे मातरम् स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा है, लेकिन वह यह भी नहीं चाहते थे कि गीत विवाद का कारण बने। उन्होंने लिखा कि मैं एक भी विवाद नहीं चाहता जो हिंदू-मुस्लिम एकता को नुकसान पहुंचा दे। मिश्रित जनसभा में किसी को खड़ा होने के लिए मजबूर न किया जाए।

यानी गांधी ने गीत की गरिमा के साथ लोगों की स्वतंत्रता, दोनों को महत्व दिया। कांग्रेस के कई नेता जैसे सी. राजगोपालाचारी, जी.बी. पंत, रफी अहमद किदवई आदि ने भी अलग-अलग तरीकों से समझौते का समर्थन किया। उन्हें लगा कि यह रास्ता सभी पक्षों को साथ लेकर आगे बढ़ने वाला है।

1937 में विवाद क्यों भड़का?

1937 के प्रांतीय चुनावों में मुस्लिम लीग बुरी तरह हार गई थी – यहां तक कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भी। पार्टी को एक ऐसा मुद्दा चाहिए था, जिससे मुस्लिम वोट एकजुट हो जाएं। वंदे मातरम् (Vande Mataram) को मोहम्मद अली जिन्ना ने हथियार बना लिया। 

जब कांग्रेस की प्रदेश सरकारों ने स्कूलों-दफ्तरों में पूरा गीत गवाना शुरू किया तो लीग ने शोर मचा दिया। जिन्ना ने तो पहले दो अंतरे भी मानने से इनकार कर दिया और कहा कि यह एंटी-मुस्लिम गीत है।

जिन्ना ने 1938 में नेहरू को लिखा कि मुसलमान वंदे मातरम् के किसी भी संस्करण को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। 

इसके बाद लीग की तरफ से कई बयान आए कि गीत परंपरागत इस्लामी मान्यताओं से मेल नहीं खाता। 

लेकिन सच यह भी है कि बिहार के शिक्षा मंत्री डॉ. सैयद महमूद ने कहा कि पहली दो पंक्तियां मुस्लिम समाज के लिए भी स्वीकार्य हैं। रफी अहमद किदवई जैसे नेताओं ने साफ कहा कि यह विवाद (Vande Mataram controversy) राजनीतिक है, धार्मिक नहीं। यानी मुस्लिम समाज भी एकमत नहीं था।

बंकिमचंद्र की सोच क्या थी?

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 के आसपास इस कविता का पहला हिस्सा लिखा था। बाद में इसे 1881 में अपने उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया। एक दिलचस्प बात यह है कि पहली दो पंक्तियां उन्होंने अलग लिखीं, बाद का हिस्सा बाद में जोड़ा गया और उसमें देवी-रूपक ज्यादा था। इसलिए माना जाता है कि खुद बंकिम भी गीत के दोनों हिस्सों को अलग महत्व देते थे।

Rana Sanga : अपनों ने धोखा दिया वरना बाबर को मार भगाते राणा सांगा

संविधान सभा ने क्या कहा?

संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को कहा था, 'जन गण मन के रूप में पहचाने जाने वाले शब्दों और संगीत से युक्त रचना भारत का राष्ट्रीय गान है... और वंदे मातरम् (Vande Mataram), जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, उसे भी जन गण मन के साथ समान रूप से सम्मानित किया जाएगा और समान दर्जा मिलेगा।'

यानी तय हुआ कि 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान होगा और वंदे मातरम् को समान सम्मान दिया जाएगा गाना भले पूरा न गाया जाए, लेकिन उसकी ऐतिहासिक भूमिका कभी कम नहीं होगी। इसके बाद भी समय-समय पर बहस लौट ही आती है। 

Comments

Popular posts from this blog

Act of War : जब ये शब्द बन जाते हैं युद्ध का ऐलान

Constitution : पाकिस्तान का संविधान बनाने वाला बाद में कैसे पछताया

Pahalgam attack : भारत की स्ट्राइक से डरे पाकिस्तान ने दी सफाई