Tariff : ट्रंप और शी के सपने में पिस रही दुनिया
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दुनिया के दो सबसे बड़े खिलाड़ी एक बार फिर आमने-सामने हैं, लेकिन इस बार युद्ध टैंक या मिसाइलों से नहीं, टैरिफ (Tariff) और व्यापार प्रतिबंधों से लड़ा जा रहा है। और मैदान केवल वॉशिंगटन या बीजिंग नहीं है, बल्कि हर वो देश है जो इनकी छाया में सांस लेता है, भारत भी। असर दिख भी रहा है। शेयर मार्केट (Share Market) लड़खड़ा रहा है। किसी बच्चे की तरह उसने संभलने की कोशिश की एक दिन, पर उसके कदम - सेंसेक्स और निफ्टी (Sensex and Nifty) साथ नहीं दे रहे।
डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) की कलम फिर से चली है। इस बार उन्होंने चीनी सामानों पर 104% का टैरिफ लगा दिया है। इसे किसी औपचारिक घोषणा की तरह मत पढ़िए, यह तो जैसे किले पर जंग का झंडा गाड़ने जैसा है। जवाब में चीन ने भी कह दिया है, 'हम अंत तक लड़ेंगे, पर झुकेंगे नहीं।'
अब लड़ाई सिर्फ व्यापार की नहीं रह गई, ये राष्ट्रीय सम्मान और प्रभुत्व की कहानी बन चुकी है।
दो रास्तों की दो कहानियां
2024 में अमेरिका ने चीन से करीब $440 अरब का सामान मंगाया, जबकि चीन ने अमेरिका से केवल $145 अरब का। मतलब चीन हर साल अमेरिका को करीब $295 अरब का व्यापार घाटा दे रहा था। ट्रंप इसी घाटे को 'राष्ट्रीय अपमान' मानते हैं, और अब उन्होंने शपथ ली है कि इस अपमान का अंत करना है - चाहे दुनिया की अर्थव्यवस्था की नींव क्यों न हिल जाए।
लेकिन चीन भी कोई सामान्य प्रतिद्वंद्वी नहीं है। वह दुनिया की सबसे बड़ी निर्माणशाला है, जो रोज लाखों टन स्टील, अरबों की चिप्स और करोड़ों की बैटरियां उगलता है। उसके गोदाम केवल उसके अपने उपभोक्ताओं के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए खुले हैं।
अब सोचिए, अगर अमेरिका का दरवाजा बंद हो गया, तो ये सामान कहां जाएगा?
टकराव के तराजू पर दुनिया
ट्रंप के टैरिफ (Trump Tariff) का असर केवल अमेरिकी दुकानों तक सीमित नहीं रहेगा। यह झटका एप्पल जैसे ब्रांडों को भी लगा है, जिसका अधिकांश उत्पादन चीन में होता है। पिछले एक महीने में एप्पल (Apple Share) के शेयर 20% तक गिर चुके हैं।
लेकिन इसका दूसरा पहलू और भी दिलचस्प है। जैसे ही अमेरिकी टैरिफ बढ़े, चीन ने अपना माल अन्य रास्तों से अमेरिका पहुंचाना शुरू कर दिया। थाईलैंड, मलेशिया और वियतनाम जैसे देशों के जरिए। जैसे कोई व्यापारी बगल की गली से सामान चुपके से ग्राहक तक पहुंचा दे।
अब ट्रंप (Trump) ने इन देशों पर भी टैरिफ (Tariff) लगाने की चेतावनी दी है। इसका मतलब यह हुआ कि अब लड़ाई सिर्फ दो देशों की नहीं, पूरी सप्लाई चेन की हो चुकी है।
भारत कहां खड़ा है इस लड़ाई में?
भारत इस लड़ाई में न तो पक्षकार है और न ही दर्शक। वह मैदान का वो खिलाड़ी है, जो सही मौके का इंतजार कर रहा है। लेकिन खतरा यह है कि ये खेल कब उसे भी घायल कर दे, कोई नहीं जानता।
भारत का फार्मा उद्योग, जो कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भर है, मुश्किल में पड़ सकता है।
इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर ऑटो सेक्टर तक, कई उद्योगों की कमर चीनी कल-पुर्जों से ही सीधी रहती है।
अगर चीन दुनिया भर में स्टील डंप करने लगे, तो भारत के स्टील कारखानों की भट्टियां ठंडी हो सकती हैं।
और फिर शेयर बाजार (Share Market), जो हवा के रुख से पहले ही हिलने लगता है। पिछली बार जब ऐसा व्यापार युद्ध हुआ था, भारत से निवेशकों ने ₹33,000 करोड़ निकाल लिए थे। रुपये की कमर टूट गई थी। इस बार भी कहानी दोहराई जा सकती है।
गहराती खाई, सिकुड़ती दुनिया
IMF के मुताबिक, अमेरिका और चीन मिलकर दुनिया की अर्थव्यवस्था का 43% हिस्सा हैं। अगर ये दोनों एक-दूसरे को गिराने में जुट जाएं, तो बाकी दुनिया को भी साथ गिरना पड़ेगा। वैश्विक निवेश ठहर जाएगा, व्यापार धीमा पड़ेगा, और महंगाई हर देश की रसोई तक पहुंच जाएगी।
और आखिर में, यह लड़ाई एक अहंकार की है। ट्रंप का 'अमेरिका फर्स्ट' बनाम शी जिनपिंग का 'चीनी सपना'। लेकिन इन सपनों की टक्कर में पूरी दुनिया का नींद हराम हो चुकी है।
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